बैठी हूँ चिंतन में एक और समय के पड़ाव पर,
देख रही हूँ उम्र के एक और सावन को बीतते हुए |
अब की बार तपते मन को शीतल नहीं कर पाया है ये
सूने मन को अपनेपन से सराबोर नहीं कर पाया है ये |
इंतज़ार में ही रह गई मैं तुम्हारे उस निमंत्रण के
कि आऊँ और तुम्हारे साथ कुछ छुट्टियाँ बिता जाऊँ
कुछ मन की मैं कहूँ और कुछ तुम्हारे मन की सुनूँ
कुछ कहे-सुने बिना भी बहुत समझ और समझा सकूँ |
गुम हो गया तुम्हारे साथ ही बचपन वो हमारा भी
साथ गईं तुम्हारे ही हमारे बचपन की कहानियाँ भी |
कौन चाव से सुनाएगा वो किस्से जो सिर्फ तुम जानती थीं
और मन में सहेज रखा था प्यार से जिन्हें तुमने |
खुद सब काम करते-करते भूल गई हूँ वो एहसास
जब थमा देता है हाथ में चाय ला कर, कोई स्नेह से |
कैसे दिख जाती थी तुम्हें मेरी इच्छा और मेहनत सदा
हर एक मंशा मेरी हो जाती थी तुम पर उजागर सदा |
तरह-तरह की सौगातें साथ बाँध देती थीं तुम मेरे
अचार, चटनियाँ, मुरब्बे, लड्डू, पंजीरी और अनेकों पकवान |
कौन जीत सकता था उस समय तुमसे तर्क में इन सब के लिए
सच में जीना चाहती हूँ उस पल को फ़िर कई बार |
रिश्ते हैं, पर सब आशाओं, अपेक्षाओं और उम्मीदों से जुड़े
सबसे निर्मल रिश्ता तो जिया मैंने तुम्हारी बेटी बन कर |
मौन हो गई वो आवाज़ जो बेटी कह कर बुलाती थी
धनी थी जो आशीर्वादों के अथाह समुद्र को लिए हुए |
महसूस होती है अब भी वो गर्माहट हाथ में मुझे,
पाई थी जो आखिरी बार तुम्हारा हाथ थामते हुए |
तड़प उठता है मन अब भी, वैसे ही, उस पल को याद कर,
जब जिस घडी छोड़ा था साथ और सब रिश्ते तुमने |
जानती हूँ क्या चाह लिए तुम चली गईं बीच में से
बन कर रहना चाहती थीं तुम बस उस ईश्वर के दरबार का -
कोई पत्ता या परिंदा, जो रह सके उसके चरणों में सदा
इंतज़ार रहेगा उस संकेत का जो दे जाए तुम्हारा पता |